Friday, June 4, 2021

महाराज जी के रामदास

रामदास तब अमेरिका में एलएसडी पर शोधकर्ता प्रोफेसर रिचर्ड अलपर्ट थे. जीवन के परे के जीवन की खोज में एलएसडी के जरिए वे इंसान को एक ऐसी दुनिया में पहुंचा देना चाहते थे जहां कोई दुख नहीं था. रिचर्ड अलपर्ट की खोज नशेखोरी का नया तरीका न थी. इसलिए सबसे पहला प्रयोग उन्होंने अपने और शोधकर्ता साथियों पर ही किया. पांच दोस्तों ने अपने आपको एक घर में बंद कर लिया और तय कि अगले तीन हफ्तों तक वे हर चार घण्टे पर 400 माइक्रोग्राम एलएसडी लेगें और उसका असर देखेंगे. तीन हफ्ते में उन पांचों ने स्वर्ग नरक सब अनुभव कर लिया लेकिन बाहर आते ही कुछ घण्टों के अंदर सारा अनुभव धराशायी हो गया. ईश्वर जैसा अनुभव करने की उनकी कोशिश बाहर आने के कुछ ही घण्टों के भीतर सामान्य इंसान की होकर रह गयी. 

रिचर्ड अलपर्ट के इस प्रयोग के तीन साथी जल्द ही भारत की तरफ आगे बढ़ गये क्योंकि उन्होंने बौद्ध धर्म की 'बुक आफ डेथ' से यह समझ आ गया कि एलएसडी से उन्हें जो कुछ अनुभव हुआ उससे मिलता जुलता कुछ अनुभव इस किताब में भी आता है. वे समझ गये कि एलएसडी के जरिए वे जिस अनुभव से गुजरना चाहते हैं वैसे अनुभव से पूरब के प्राचीन ऋषि मुनि गुजरते रहे हैं. इसलिए वे लोग भारत की तरफ चल दिये जबकि रिचर्ड अमेरिका में ही रह गये और लोगों को अपने पराभौतिक अनुभव सुनाते रहे. 

इसी बीच रिचर्ड की मुलाकात डेविड से हुई. डेविड बहुत बुद्धिमान था और कभी रिचर्ड का छात्र रह चुका था. पैंतीस साल की उम्र में अपना शोध झेरॉक्स कंपनी को बेचकर वह रिटायर हो चुका था और बौद्ध भिक्षु बनना चाहता था. इसी कड़ी में वह भारत आने की तैयारी कर रहा था. रिचर्ड के लिए भी यह एक मौका था कि वे भी भारत क्यों नहीं चले जाते?

अल्पर्ट यह सोचकर भारत जाने के लिए तैयार हो गये कि हो न हो कोई ऐसा योगी मिले जिसे वे एलएसडी देकर उसके असर की जांच करते हुए यह पता लगा सकें कि कहां क्या मिस हो रहा है. अल्पर्ट भारत आ गये और काफी वक्त घूमते रहे लेकिन उन्हें कुछ खास हासिल न हो सका. वे निराश होकर अमेरिका लौटना चाहते थे. तभी एक दिन धर्मशाला के एक ब्लू तिबत्तियन कैफे में उनकी मुलाकात 23 साल के एक नौजवान से हुई. देखने में पश्चिमी दिख रहे उस नौजवान की भेषभूषा साधुओं वाली थी. हालांकि अल्पर्ट ने शुरू में कोई खास रुचि नहीं दिखाई लेकिन नौजवान के आकर्षण से वे अपने आपको अलग न कर सके. परिचय हुआ तो नौजवान का नया नाम पता चला, भगवानदास.

मेल मुलाकात के बाद अल्पर्ट और उनके पांच लोगों का ग्रुप भगवान दास के साथ पांच दिन होटल में साथ रहा. पांचवे दिन जब ग्रुप के बाकी सदस्य "जेन" की खोज में जापान की तरफ निकलने लगे को भगवानदास ने अल्पर्ट से कहा, उठो और मेरे साथ चलो. और वहां से वो लोग बानेश्वर की तरफ चल पड़े. 

तीन दिन की पदयात्रा में नौजवान भगवानदास प्रोफेसर अल्पर्ट का मालिक था. कितनी भी तकलीफ हो लेकिन दोनों के बीच होता वही था जो भगवानदास चाहते थे. चलते चलते थकान लगे तो भगवान दास की वाणी, "अतीत को भूल जाओ. इस वक्त में जहां हो वहां रहो." "लेकिन मैं थोड़ा आराम करना चाहता हूं." जवाब मिला "ये सब भावनाएं हैं. भावनाएं तरंग होती हैं, उन्हें तैरने दो और वे गायब हो जाएंगी." 

आखिरकार जब अल्पर्ट थककर चूर हो गये तो सहसा भगवान दास ने कहा, ठीक है थोड़ा आराम कर लो. अल्पर्ट ने महसूस किया कि भगवानदास के साथ उनकी हालत उस औरत जैसी हो गयी है जो अपनी बात मनवाने के लिए पति के आगे सब प्रकार से कोशिश करे लेकिन उसकी एक न चलने पाये. लेकिन इसके बाद भी अलपर्ट ने किसी व्यक्ति से इतना गहरा लगाव महसूस नहीं किया था जितना वे इस नौजवान से कर रहे थे. अल्पर्ट कहते हैं कि उस यात्रा के दौरान वह भारी भरकम नौजवान जहां कहीं जाता उनके बीच सम्मान पाता. फिर वे चाहे बौद्ध हों कि शैव संत. बीते पांच सालों में उस नौजवान ने भारत की विविधता से गहरा नाता जोड़ लिया था.

अल्पर्ट ने महसूस किया कि उस भारी भरकम आदमी को अपनी मान्यताओं पूरा भरोसा है और वह उस पर अडिग है. उसे किसी भी तरीके से डिगाया नहीं जा सकता. भगवान दास के साथ रहते हुए अल्पर्ट ने महूसस किया कि वे रात में सोते नहीं है. रात में जब भी अल्पर्ट की नींद खुली उन्होंने भगवानदास को हमेशा आसन में बैठा पाया. अल्पर्ट ने सोचा हो सकता है वह बैठे बैठे सोता हो. यह भी हो सकता है कि वह सोता ही न हो. 

एक रात अल्पर्ट पेशाब करने के लिए उठे. बाहर निकले तो उनकी नजर आसमान की तरफ गयी. तारों के बीच देखते हुए उन्होंने महसूस किया कि इन्हीं तारों में एक तारा मेरी मां भी होगी जिनका पिछले साल निधन हो गया था. अल्पर्ट ने महसूस किया कि जरूर उनकी मां आसमान से उन्हें देख रहीं होंगी. वे देख रही होंगी कि इस समय मैं एक ऐसे नौजवान के साथ हूं जो धोती पहनता है और बहुत कठोर है. 

भगवानदास के साथ कुछ महीने रहते हुए अल्पर्ट ने महसूस किया कि उनका वीजा खत्म हो रहा है. उन्हें कुछ नये कपड़ों की भी जरूरत है. अगले दिन सुबह भगवान दास ने अल्पर्ट से कहा कि मुझे वीजा की दिक्कत है, मुझे जल्द से जल्द अपने गुरू के पास जाना है. भगवानदास ने कहा कि "शहर चलकर डेविड की लैण्ड रोवर ले लेंगे फिर हिमालय में गुरू के पास चलेंगे." यह सुनकर अल्पर्ट को थोड़ा विश्वास नहीं हुआ. अल्पर्ट को किसी गुरू में कोई आस्था न थी उसे मालूम था सारे गुरू लालची होते हैं और कैलिफोर्निया ऐसे लालची गुरुओं से भरा पड़ा है. और लैण्ड रोवर कोई क्यों दे देगा? 

फिर भी अल्पर्ट भगवानदास के साथ चल पड़े. उनके आश्चर्य का तब कोई ठिकाना न रहा जब डेविड के भारतीय दोस्त ने खुद कहा कि अगर अपने गुरू से मिलने जा रहे हैं तो लैंड रोवर क्यों नहीं ले जाते. अगले दिन भगवानदास लैंड रोवर चला रहे थे और हिमालय की तरफ आगे बढ़ चले थे जहां हिमालय के अस्सी मील अंदर उन्हें अपने गुरू से मिलना था. रास्तेभर अल्पर्ट सोचते रहे कि जादुई अनुभूतियों के चक्कर में आखिर उन्होंने हारवर्ड की अपनी तार्किक दुनिया को क्यों त्याग दिया?

आखिरकार वे वहां थे जहां सड़क किनारे बने मंदिर में उनका वहां के लोगों द्वारा स्वागत हआ. स्वागत करने वालेे लोग इतना खुश थे कि कुछ मारे खुशी के रो पड़े थे. अजब माहौल बन गया था. मेल मुलाकात के दौरान दास ने गुरू के बारे में पूछा तो लोगों ने बताया वे यहीं हैं. और पहाड़ी की तरफ इशारा कर दिया. अब रोने की बारी भगवानदास की थी. इसके बाद सब पहाड़ी की तरफ दौड़े. बड़ी तेजी से पूरा कारवां पहाड़ी की तरफ चल दिया. अल्पर्ट ने महसूस किया कि इस भागदौड़ में लोगों ने उनकी तरफ कोई ध्यान न दिया. आखिरकार सड़क से दूर सब पहाड़ी की तराईनुमा जगह पर पहुंचे जहां साठ सत्तर साल के एक बुजुर्ग कंबल ओढ़े बैठे हुए थे और आसपास उनके भक्तों का घेरा बना हुआ था. 

अल्पर्ट के आश्चर्य का तब कोई ठिकाना न रहा जब उन्होंने देखा कि कैलिफोर्निया का वह नौजवान भरभराकर अपने गुरू के चरणों में गिर पड़ा. भगवानदास जमीन पर पड़े थे और अपने गुरू के पैरों को हाथ में लिए रोये जा रहे थे. अल्पर्ट के लिए यह सब बहुत 'बकवास' जैसा दिख रहा था. हालांकि उन्हें महसूस हुआ कि मानों उनसे इस तरह की उम्मीद शायद कोई नहीं कर रहा था.

इसके बाद उन बुजुर्ग ने भगवानदास से हिन्दी में कुछ कहा. जिसका अनुवादक ने अनुवाद किया कि क्या भगवान दास के पास उनका कोई फोटोग्राफ है. जब भगवान दास ने कहां हां तो बुजुर्ग ने इशारा किया, (अल्पर्ट को) "दे दो." अल्पर्ट शिष्टाचार वश बड़ी मुश्किल से मुस्कुराये हालांकि पैर तो अब भी उन्होंने नही छुआ. 

इसके बाद बुजुर्ग (जिन्हें लोग महाराजजी कह रहे थे) ने अल्पर्ट की तरफ आंखों से इशारा करते हुए पूछा " तुम बड़ी कार से आये हो." अल्पर्ट ने स्वीकार किया कि हां वह बड़ी कार में आये हैं जो पहाड़ी के नीचे खड़ी है. इसके बाद बुजुर्ग ने कहा, "तुम अमीर आदमी हो. क्या वैसी ही एक कार मेरे लिए ला सकते हो? " अल्पर्ट ने मन ही मन सोचा गुरू सब ऐसे ही होते हैं. और फिर कहा, "हां. शायद." इसके बाद बुजुर्ग ने इशारा किया कि "इन्हें ले जाओ और प्रसाद दो."

वहां से थोड़ी दूर पर बने भवन में उन्हें बहुत प्यार से भोजन कराया गया जिसके बारे में अल्पर्ट ने महसूस किया कि प्रसाद देनेवाले मानवता और इंसानियत से लबालब नजर आ रहे थे. अभी वे प्रसाद पा ही रहे थे कि अगला संदेश फिर से उनके पास आया. महाराज जी याद कर रहे हैं. थोड़ी देर में वे फिर से महाराज जी के सामने थे. और अब बुजुर्ग व्यक्ति के पहले ही वाक्य ने उनके शरीर में सिहरन पैदा कर दी. 

" रात को आसमान में तारे देख रहे थे?"

"हां"

"मां के बारे में सोच रहे थे!"

"हां" कहते हुए अल्पर्ट सोचने लगे कि उस रात के बारे में तो उन्होंने किसी व्यक्ति को कुछ बताया नहीं था. कम से कम किसी जीवित व्यक्ति को तो कुछ नहीं बताया था. फिर....

"तुम्हारी मां पेट के रोग के कारण मरी थीं......." थोड़ी देर चुप रहकर "स्प्लीन के कारण...."

अब तो जैसे हारवर्ड के तार्किक दुनिया का जो समझ और स्वभाव बचा रह गया था वह भी भरभराकर गिर गया. अल्पर्ट को अपने पुराने दिनों के एक सज्जन याद आये जो टेलीपैथी की बात करते थे लेकिन ये बुजुर्ग सज्जन तो कुछ और ही थे. महाराज जी के बारे में उन्होंने अपने आपको बहुत समझाने की कोशिश की जो कि उन्हें पश्चिमी समझ के सांचे में बिठाकर एक सामान्य आदमी के रूप में देख सके. लेकिन सब असफल हुआ. मानों अल्पर्ट के कम्प्यूटर ने काम करना बंद कर दिया और लाल बत्ती जला दी है. 

अल्पर्ट के लिए पश्चिम के काटीजियन तर्क के सारे सिद्धांत बेकार साबित हुए. अब बुजुर्ग व्यक्ति उनकी तरफ देखकर मुस्करा रहे थे और अल्पर्ट के भीतर पश्चिम ने जितना कुछ तर्कवाद गढ़ा था वह सब धराशायी होता जा रहा था जो यह कहता था कि यह संभव नहीं है. इसके बाद वह बुजुर्ग अल्पर्ट की तरफ झुके तो अल्पर्ट ने अपने सीने में भारी दबाव महसूस किया. उन्हें महसूस हुआ कि भारी आवेग के दबाव से जैसे भीतर कुछ खुलता जा रहा है. उन्होंने महसूस किया कि वे बच्चे की तरह रो रहे है लेकिन साथ ही साथ उन्होंने असीम आनंद भी अनुभव किया. उन्हें लगा यात्रा का अंत हो गया. वे घर आ गये हैं. 

वहां मौजूद लोग अल्पर्ट को वहां से उठाकर ले गये. वे सब बहुत खुश थे क्योंकि "वह" अब अल्पर्ट के साथ भी हो गया है जो उनके साथ भी हो चुका है. अल्पर्ट को वहां से उठाकर तीन किलोमीटर दूर किसी के घर ले जाया गया. अल्पर्ट असहज थे लेकिन इस वक्त उन्हें हवा से भी हल्का महसूस हो रहा था. बाद में जब वे बिस्तर पर लेटने लगे तो उन्हें लगा कि अब वे जान सकेंगे कि एलएसडी क्या है. लंबे समय बाद कोई ऐसा मिला है जो जरूर जानता होगा. उन्हें एलएसडी के असर के बारे में जरूर पता होगा. वे जरूर इस बारे में उनसे पूछेंगे. 

अगले दिन सुबह आठ बजे फिर से बुलावा आया, महाराज जी उन्हें याद कर रहे हैं. तत्काल अल्पर्ट उस जगह जाने के लिए तैयार होने लगे जहां कल सब कुछ घटित हुआ था. लेकिन जैसे ही वे महाराज जी के पास पहुंचे उन्हें दूसरा झटका लगा. "तो सवाल के बारे में क्या कहना है? दवा लाये हो?" अल्पर्ट सन्न रह गये. उन्होंने अपने सवाल के बारे में किसी से कुछ नहीं कहा था. उन्होंने सिर्फ सोचा था. और यहां बुजुर्ग आदमी उनसे उसी बारे में पूछ रहे हैं. वे तत्काल कार की तरफ दौड़कर गये और एलएसडी की बोतल लेकर आये. 

बुजुर्ग आदमी के सामने बोतल दिखाते हुए उन्होंने कहा, "यह एसटीपी है, यह लिब्रियम है और यह एलएसडी है." 

"और यह सब तुम्हें सिद्धि देती है?"

अल्पर्ट ने सिद्धि के बारे में नहीं सुना था. और उस शब्द का अर्थ समझने के लिए अनुवादक का इंतजार कर रहे थे कि बुजुर्ग आदमी ने दवा के लिए हाथ आगे कर दिया. अल्पर्ट ने झिझकते हुए बोतल से एक टेबलेट निकालकर उनके हाथ पर रख दिया. यह करते हुए अल्पर्ट हिचक रहे थे क्योंकि एक गोली 300 माइक्रोग्राम पॉवर की थी जो कि हाई डोज था. एक आदमी के लिए 75 माइक्रोग्राम का डोज पर्याप्त था. लेकिन इन बुजुर्ग का काम एक गोली से नहीं चलनेवाला था. बहुत हिचकते हुए अल्पर्ट ने एक और फिर एक और गोली निकालकर हाथ पर रख दी. और बुजुर्ग सज्जन ने तीनों गोली एकसाथ निगल ली. और नित्यप्रति की सामान्य दिनचर्या शुरू कर दी. 

अब अलपर्ट किसी विस्फोट का इंतजार कर रहे थे. 900 माइक्रोग्राम हाई एसिड किसी एडिक्ट का डोज हो सकता है. सत्तर साल के एक बुजुर्ग के लिए यह बहुत ज्यादा था जिसने कभी एलएसडी न लिया हो. लेकिन पूरा दिन बीत गया. कुछ न हुआ. वे आश्रम की अपनी नियमित दिनचर्या करते रहे और बीच बीच में कभी कभी अल्पर्ट की तरफ भी देखते रहे जैसे कोई मौन संदेश दे रहे हों. लेकिन दिन बीत गया. कुछ नहीं हुआ.

उस शाम अल्पर्ट को मंदिर ले जाया गया जहां चारों तरफ महाराज जी के भक्त थे. कोई भेदभाव नहीं. कोई मांग नहीं. किसी के लिए कोई नियम कानून नहीं लेकिन फिर भी एक अनुशासन. सबकुछ भीतर से व्यवस्थित. अब अल्पर्ट को कुछ कुछ समझ आ रहा था. वे जिस बुजुर्ग सज्जन से मिले थे उनके बारे में समझ आया कि वे सहज समाधि की अवस्था में हैं. एक ऐसी अवस्था जहां उन्हें भौतिक जगत से कुछ नहीं चाहिए था. लोगों की तकलीफ दूर करने के लिए अपनी यात्राओं में अक्सर वे किसी जगह रुकते और कहते यहां एक मंदिर बनाओ. और वहां मंदिर का निर्माण शुरू हो जाता.

अल्पर्ट अब सामान्य हो रहे थे लेकिन आश्रम के लोग अभी भी उनका ध्यान रख रहे थे. उनके साथ कुछ बड़ा घटित हुआ था और उनका ध्यान रखे जाने की जरूरत थी. हालांकि अभी भी महाराज जी द्वारा अल्पर्ट के मन संदेशों का पाठ जारी था. जैसे एक रात अपनी डायरी पलटते हुए उन्होंने विचार किया कि वे हिमालय में हैं और उन्हें बौद्ध संत लामा गोविन्द से मुलाकात करनी चाहिए. अगले दिन महाराज जी आंखों से इशारा करते हुए पूछ लिया "तुम हिमालय में हो. लामा गोविन्द से संपर्क क्यों नहीं करते?" अल्पर्ट ने महसूस किया कि उनका उसी तरह ध्यान रखा जा रहा है जैसे किसी छोटे बच्चे का रखा जाता है कि कहीं वह सड़क पर दौड़कर न चला जाए. 

करीब चार महीने आश्रम में बिताने के बाद अल्पर्ट को महसूस हुआ कि उन्हें वीजा के सिलसिले में दिल्ली जाना होगा. करीब बारह घण्टे की बस यात्रा के बाद वे दिल्ली पहुंचे और दिल्ली के कनाट प्लेस में पॉश दुकानों पर कुछ खरीदारी करने पहुंचे. तभी उन्हें कुछ महसूस हुआ. एकाएक एक आंतरिक आवेग आया. यह आंतरिक आवेग ड्रग्स जैसा नहीं था. कुछ अलग था. एक अलग तरह की आंतरिक अनुभूति. जैसे वे किसी और धरातल पर पहुंच गये हैं. हालांकि उन्होंने अपना काम जारी रखा. क्योंकि वे साधुवेश में थे इसलिए दुकानदार ने उनसे खरीदारी के पैसे नहीं लिए और कहा कि एक तो आप पश्चिम से आये हैं और साधु वेश में हैं. इसे गिफ्ट समझकर रख लीजिए. 

रामदास बीते चार महीने से शुद्ध शाकाहार पर थे लेकिन उन्हें कोई परेशानी न थी. वे हल्का महसूस कर रहे थे. इसलिए दिल्ली में एक ऐसे रेस्टोरेन्ट में गये जो कि शुद्ध शाकाहारी था. लेकिन वहां इंगलिश बिस्कुट और आइसक्रीम देखकर खुद को रोक नहीं पाये और छककर खाया. और जब वे लौटकर आश्रम आये तो महाराज जी ने उनसे इतना जरूर पूछा "कैसे रहे बिस्कुट?" 

आश्रम में लौट आने के बाद अल्पर्ट ने महसूस किया कि कई बार महाराज जी लोगों के लाये प्रसाद में से कुछ खा लेते थे. यह उनकी तपस्या थी और ऐसा करके वे किसी के कर्म को काटते थे. 

आश्रम में रहते हुए अल्पर्ट रात में अक्सर मानसिक फंतासियों में खो जाते थे कि कैसे सिद्धि हासिल कर लेने के बाद वे अमेरिका में चैरिटी प्रोग्राम चलायेंगे. लेकिन यह सब बदलता रहता और फिर कई बार यौन इच्छाओं में भी खो जाते थे. और इसी उधेड़बुन के बीच एक दिन महाराज जी ने सवाल किया, "अमेरिका में चैरिटी करना चाहते हो?" अलपर्ट के आश्चर्य का ठिकाना न रहा. "हे भगवान! वे वह सब जानते हैं जो आपके दिमाग में चलता रहता है!" अल्पर्ट ने महाराज जी के चेहरे की तरफ देखा तो उन्हें गहरे प्यार के शांत सागर सी अनुभूति हुई. महाराज जी ने कहा "एक बार आपको महसूस हो जाए कि भगवान सब जानते हैं, आप मुक्त हो जाते हैं."

आश्रम में हरिदास बाबा अल्पर्ट को बतौर शिक्षक नियुक्त किये गये. हरिदास बाबा ने नित्यप्रति की दिनचर्या और आश्रम जीवन के साथ साथ अल्पर्ट को राजयोग की शिक्षा दी. ब्लैकबोर्ड पर इबारतें लिखकर राजयोग की गूढ़ शिक्षाओं से अल्पर्ट का परिचय करवाया गया. "अगर कोई पॉकेटमार किसी संत से मिलता है तो भी उसकी नजर बटुए पर ही होती है." इसी तरह अहिंसा का महत्व समझाते हुए अल्पर्ट को बताया गया कि पशुओं के प्रति अहिंसा का भाव क्यों जरूरी है. जीवदया रखनेवाले योगी को कोबरा भी भयभीत नहीं करता है. प्रेम और अहिंसा का महत्व समझाया गया. 

लेकिन अब धीरे धीरे रिचर्ड अलपर्ट के विदाई का समय भी नजदीक आने लगा था. इसी बीच एक दिन महाराज जी भक्तों के साथ जंगल की तरफ चले. भगवानदास और अल्पर्ट भी साथ थे. महाराज जी वहां काम करनेवाले सेवादारों के साथ एक झोपड़ी में चले गये जहां बुलावे के बाद अल्पर्ट को भी भेजा गया. और अल्पर्ट जब गुरू के सामने बैठे तो कुछ बहुत सामान्य से सवाल किये गये. "क्या आप अमेरिकावासियों को खुश रखोगे? क्या आप बच्चों को भोजन कराओगे?" अल्पर्ट ने कहा "हां" तो महाराज जी ने कहा, "बहुत अच्छा". और झुककर अल्पर्ट के माथे पर तीन बार स्पर्श कर दिया. 

अल्पर्ट को इस बार वैसी कोई शारीरिक अनुभूति न हुई जैसी पहली बार हुई थी. लेकिन अल्पर्ट को अपने हृदय में गहरे प्यार का सागर उमड़ता प्रतीत हुआ. हालांकि वहां मौजूद लोगों ने बाद में अल्पर्ट को बताया कि जब वे महाराज जी से मिलकर बाहर आये थे तो उनके चेहरे पर दिव्य आभा थी. 

एक लंबी यात्रा के बाद अब उन्हें अमेरिका भेज दिया गया था. इस निर्देश के साथ कि "अभी और यहीं सत्य है." उन्हें यह भी निर्देश दिया गया कि वे अमेरिका में महाराज जी के परिचय और स्थान को गुप्त रखेंगे. हालांकि यह हो नहीं पाया और रामदास के प्रवचनों से कुछ लोगों ने कैंचीधाम और महाराज जी का पता पा ही लिया.

(अमेरिका में रामदास के प्रवचनों और "डूइंग योर बीइंग" के प्रस्तावना के आधार पर 1973 में ब्रिटेन में प्रकाशित लेख का महाराज जी की प्रेरणा से यथायोग्य अनुवाद)

Tuesday, June 7, 2016

हम तो आये थे, पंजाबिन ने डांटकर भगा दिया

नैनीताल की श्रीमति विधा शाह ने एक दिन मन में सोचा कि महाराज आप सब के घर आते है, मेरे घर भी आओ किसी दिन पर संकोचवश कह नहीं पायी। आपका घर बाज़ार में था, संकरी सीढ़ियाँ थी आपकी। बाबा का डील- डोल देख कर आपको लगा कि बाबा के लिये उपर सीढ़ियाँ चडना मुश्किल है। अचानक आप के मन की बात जानते हुए बाबा स्वत: बोल उठे," हम तेरे घर आयेंगे, तू हवन करवा।"

आपने मंदिर के पुजारी से हवन का अनुष्ठान करवाया। जिस दिन पूर्णाहूति हुई आप प्रसाद लेकर घर आ रही थी तो देखा कि रास्ते भर एक दुबला पतला साधू आपके पीछे पीछे चला आ रहा है। इससे आपको कुछ मानसिक परेशानी हुई। वे बराबर आपके पीछे चल रहा था। घर आने का रास्ता जो कि एक पंजाबी परिवार के घर से होकर जाता था, वहाँ आप सीढियों से ऊपर चढ़ गयी। उस साधू को उनके पीछे देखकर, पंजाबी परिवार ने उसे ढांट कर भगा दिया। हालांकि उनकी समझ में नहीं आया कि वो साधू पीछा क्यूँ कर रहा है।

इस घटना के कुछ समय बाद आप बाबा के पास बैठी थीं कि आपके मन में ख़्याल आया कि बाबा ने घर आने की बात कहीं थी उनके कहे अनुसार यज्ञ भी करवाया पर बाबा नहीं आये। इस पर बाबा तुरंत बोल उठे" हम तो आये थे, पर तेरे यहाँ पंजाबिन ने हमें भगा दिया।" आप बाबा को पहचान न पाई, अपने पर आपको बहुत ग्लानि हुई। बाबा तो किसी भी रूप में आपको मिल सकते है, बस आप पहचान लीजियेगा।

Tuesday, December 22, 2015

बाबाजी ने बचाई जिन्दगी

अल्मोड़ा में एक दिन दिवाकर पंत बहुत बुरी तरह बीमार हो गये। आधी रात होते होते उनकी हालत बहुत नाजुक हो गयी। पहाड़ में इतनी रात किसी डॉक्टर को बुलाना भी संभव नहीं था। सब सुबह होने का इंतजार कर रहे थे। उनकी हालत लगातार बिगड़ती जा रही थी। उनकी पत्नी रोते रोते बदहवास होकर गिर पड़ीं।

तभी उन्होंने महसूस किया जैसे महाराज जी उनका कंधा पकड़कर हिला रहे हैं और एक दवा की तरफ इशारा करते हुए कह रहे हैं कि "यह दवा दे दो। वह ठीक हो जाएगा। "

उन्हें यह सोचने का भी होश नहीं था कि अचानक बाबाजी कब आ गये? कमरे में उनके अलावा किसी और ने बाबाजी को देखा भी नहीं। वे उठीं और बाबाजी ने जिस दवा की तरफ इशारा किया था वह दवा पिला दी। दवा देते ही दिवाकर पंत के व्यवहार में अजीब सा बदलाव आ गया। वे हिंसक हो गये और अनाप शनाप बकने लगे। ऐसे लग रहा था जैसे उनके दिमाग का संतुलन बिगड़ गया है। सब उनकी पत्नी के व्यवहार को कोस रहे थे कि बिना जाने समझे उसने कौन सी दवा दे दी। खुद उनकी पत्नी को भी पता नहीं था कि उन्होंने कौन सी दवा दे दी है। उन्हें न दवा का नाम पता था और न डोज।

खैर, अगली सुबह डॉ खजानचंद आये। रोगी की जांच करने के बाद उन्होंने वह सब वाकया बड़े धैर्य से सुना जो रात में घटित हुआ था। उन्होंने कोरोमाइन नामक दवा की वह शीशी भी देखी जिसमें से रात में रोगी को उनकी पत्नी ने दवा पिलाई थी। सब सुनने के बाद उन्होंने दिवाकर पंत की पत्नी से पूछा, बेटी तुमने यह दवा क्यों दी?

मारे शर्म और अपराधबोध के वो कोई जवाब न दे सकीं। बस बुरी तरह रोये जा रही थीं। तब डॉक्टर ने उनकी पीठ थपथपाते हुए कहा कि "यह दवा देकर तुमने अपने पति की जान बचा ली। उस वक्त सिर्फ यही एक दवा थी जो रोगी को दी जा सकती थी।" डॉक्टर ने कहा, अब वे ठीक हो जाएंगे। घबराने की कोई बात नहीं है।

#महाराजजीकथामृत

(रवि प्रकाश पांडे (राजीदा),  द डिवाइन रियलिटी, दूसरा संस्करण, (१९९५), पेज- १०७/१०८)

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🌺 जय जय नींब करौरी बाबा। 🌺
🌺 कृपा करहु आवई सद्भावा।। 🌺
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Tuesday, December 15, 2015

कंजूस का धन

बात 1966 की है। तब कैंची नदी पर इतना बड़ा पुल नहीं था। एक लकड़ी का छोटा सा पुल था। कई बार दोपहर में वे वहीं जाकर बैठ जाते थे और भोजन करते थे। पंद्रह जून के भंडारे से पहले एक दिन वे उसी पुल पर बैठे हुए थे कि बरेली से एक भक्त आये। ट्रक में। कुछ पत्तल और कसोरे (मिट्टी का बर्तन) साथ लाये थे भंडारे के लिए। उन्होंने वह सब वहां अर्पित करते हुए मुझसे कहा, "दादा बताइये और क्या जरूरत है?"

मेरे नहीं कहने के बाद भी वे बार बार यही जोर देते रहे कि बताइये और क्या चाहिए। बताइये और क्या चाहिए। उनके बहुत जोर देने पर मैंने कह दिया कि दो खांची (बांस का बना बड़ा बर्तन) कसोरे और भेज दीजिएगा।

तब तक बाबाजी चिल्लाये। क्या? क्या करने जा रहे हो तुम उसके साथ मिलकर? है तो सबकुछ। तुम बहुत लालची हो गये हो। कोई कुछ देना चाहे तो तुम तत्काल झोली फैला देते हो।"  मैं चुप रहा।

प्रसाद लेने के बाद जब वह व्यक्ति जाने के लिए तैयार हुआ और महाराजजी के पास उनके चरण छूने पहुंचा तो सौ रूपये का नोट निकालकर रख दिया। महाराजजी ने तत्काल वह सौ रूपये का नोट उसके सामने ही फाड़कर फेंक दिया। वह व्यक्ति बहुत खिन्न मन से वापस लौट गया।

उसके जाने के बाद महाराजजी ने कहा, "आप समझते नहीं हैं दादा। कंजूस का दिया धन या भोजन आपको स्वीकार नहीं करना चाहिए। हजम नहीं होगा। उस आदमी के पास बहुत पैसा है लेकिन दान पुण्य के लिए धेला भी खर्च नहीं करता है। मैं उसको बहुत अच्छे से जानता हूं।"

(सुधीर "दादा" मुखर्जी द्वारा अपने दोस्त को बताया गया एक वाकया।)

#महाराजजीकथामृत

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Tuesday, November 17, 2015

आंखों की रोशनी वापस आ गयी

एक बार इलाके के एक बुजुर्ग की दोनों आंखें चली गयी। उस वक्त वे बुजुर्ग महाराजजी के पास ही रह रहे थे। लोगों ने जब महाराजजी से इस बारे में बात की तो उन्होंने कहा कि "समर्थ गुरू रामदास ने अपनी मां के अंधेपन का इलाज किया था। दुनिया में ऐसा दूसरा संत नहीं है।" यह कहकर महाराजजी ने एक अनार मंगवाया और उसको मसलकर उसका जूस पी गये और उन्होंने अपने कंबल को अपने ऊपर ओढ़ लिया। उनकी आंखों से खून निकल रहा था। इसके बाद महाराजजी ने उस व्यक्ति से कहा कि तुम्हारी दृष्टि वापस आ जाए तो अपने व्यापार से रिटायर हो जाना और अपनी आध्यात्मिक उन्नति की दिशा में आगे बढ़ना।

अगले दिन डॉक्टर आये और जब उन बुजुर्ग की आंखों का परीक्षण किया तो चौंक गये। उन्होंने कहा कि यह असंभव है। किसने किया यह? लोगों ने बताया महाराजजी ने। डॉक्टर ने पूछा कि वे अब कहां हैं तो लोगों ने बताया कि वे तो जा चुके हैं। डॉक्टर भागते हुए स्टेशन पहुंचे। महाराजजी ट्रेन में सवार हो चुके थे। डॉक्टर दौड़कर बोगी में पहुंच गये। डॉक्टर को देखते ही महाराजजी ने कहा, देखो ये कितने काबिल डॉक्टर हैं। इन्होंने उस बुजुर्ग व्यक्ति की आंख ठीक कर दी। ये बहुत अच्छे डॉक्टर हैं।

हालांकि तीन चार महीने बाद ही वे बुजुर्ग अपने आपको रोक नहीं पाये और काम पर वापस लौट गये। उसी दिन उनके आंखों की रोशनी फिर से चली गयी।

#महाराजजीकथामृत

(रामदास, मिराकल आफ लव, पहला संस्करण, 1979, पेज- 318)
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🌺 जय जय नींब करौरी बाबा! 🌺
🌺 कृपा करहु आवई सद्भावा!! 🌺
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Saturday, November 14, 2015

गुरु भक्ति

एक दिन मैं महाराजजी से कुछ दूरी पर उनके सामने ही बैठा हुआ था। बहुत सारे भक्त उनके आसपास बैठे हुए थे। बात हो रही थी। हंसी मजाक चल रहा था। कुछ उनके पैरों की मालिश कर रहे थे। लोग उन्हें सेव और फूल दे रहे थे। वे उन चीजों को प्रसाद रूप में लोगों में वितरित कर रहे थे। सब तरफ प्रेम और करुणा बरस रही थी। लेकिन मैदान में कुछ दूरी पर मैं अलग ही अवस्था में बैठा हुआ था।

मैं सोच रहा था कि सब ठीक है लेकिन यह सब तो एक मूर्तरूप से जुड़ा प्रेम है। मैंने यह कर लिया अब मुझे इसके परे जाना है। वे कुछ खास नहीं हैं हालांकि वे सबकुछ हैं। मैं दुनिया में जहां कहीं भी हूं, उनके चरणों में हूं। मैं उनके साथ जिस अवस्था में जुड़ा हूं उसके लिए शरीर की मर्यादा का होना जरूरी नहीं है। जागृत अवस्था में हम एक हैं।

तभी मैंने देखा कि महाराजजी एक बुजुर्ग भक्त के कान में कुछ कह रहे हैं और वह बुजुर्ग भक्त भागकर मेरे पास आया और मेरे पैर छूकर खड़ा हो गया। मैंने पूछा, "आपने यह क्यों किया?" उन्होंने कहा, "महाराजजी ने कहा है। उन्होंने कहा कि मैं और वो एक दूसरे को अच्छे से समझते हैं।"

#महाराजजीकथामृत

(रामदास, जर्नी आफ अवेकनिंग, ई बुक, पेज- १२५)
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🌺 जय जय नींब करौरी बाबा! 🌺
🌺 कृपा करहु आवई सद्भावा!! 🌺
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Saturday, November 7, 2015

छूटे प्राण वापस आ गये

करीब ४० वर्ष पूर्व मेरी पत्नी बहुत बीमार हो गयी ! बचने की कोई उम्मीद नही थी ! मेरे पास एक ही रास्ता था , बाबा का निरन्तर स्मरण! जब पता चला बाबा जी बरेली डाक्टर भण्डारी के घर आये है तो वहाँ भागा पर बाबा वहाँ न मिले। आठ बजे रात पेड़ के नीचे बैठा बाबा को याद करता रहा! तब एक व्यक्ति से पता चला कि बाबा जी कमिश्नर लाल साहेब के घर पर हैं। मै वहाँ पहँचा परन्तु चपरासी ने भीतर नही जाने दिया। मैं बाहर ही महाराजजी को दीनता से अंतरमन में पुकारता रहा और तभी बाबा जी बाहर निकल आये मेरी आर्त पुकार सुनकर और कहा, "रिक्शा ला तेरे घर चलते है!"

लाल साहब की गाडी पर बाबा नही बैठे ! रिक्शे से हम घर आ गये ! बाबा सीधे मेरी पत्नी के कमरे में पहुंचे और उनके पलंग के पास ही कुर्सी पर बैठ गये ! तभी उन्होने अपने चरण उठाकर पलंग पर रख दिये। पत्नी ने प्रयास करके किसी तरह अपना सिर बाबा के चरणों पर रख दिया, इसके साथ ही उनकी रही सही नब्ज भी छूट गयी। सब हाहाकार करके रो उठे पर बाबा जी चिल्ला कर बोले, "नहीं, मरी नही है, आन्नद में है !" और ऐसा कहकर पत्नी के गाल पर चपत मारी और उसकी नब्ज वापिस आ गई। तब रात १०.३० बजे बाबा ने हिमालया कम्बल माँगा। कम्बल आ गया, जिसे बाबा जी ने खुद ओढ लिया और अपना ओढा कम्बल पत्नी पर डाल कर चले गये।

बाबा दूसरे दिन फिर आये और पत्नी की नब्ज उनके चरण छूते फिर छूट गयी! तब बाबा बोले "माई हमे बहुत परेशान करती है! हमें बैठना पड़ जाता है !" और इसके बाद पत्नी बिना इलाज के पूर्णता: स्वस्थ हो गई!

(प्यारेलाल गुप्ता -- बरेली)

जय गुरूदेव
अनंत कथामृत