Saturday, October 31, 2015

महाराजजी से लैरी ब्रिलियंट की पहली मुलाकात

(चेचक उन्मूलन के विश्व स्वास्थ्य संगठन की टीम का नेतृत्व करनेवाले लैरी ब्रिलियंट महाराजजी के कहने पर ही उस स्वास्थ्य महा अभियान में शामिल हुए थे। गूगल डॉट आर्ग के निदेशक रह चुके लैरी ब्रिलियंट के महाराजजी से मिलने की कहानी, उन्हीं की जुबानी)

मेरी पत्नी (गिरिजा ब्रिलियंट) महाराजजी से मिल चुकी थी और इब मुझे ले जाने के लिए अमेरिका लौटकर आयी थी। पहली बार जब मैं महाराज जी से मिला उसकी कहानी कुछ इस प्रकार है।

पश्चिम के मतवाले लोग एक बूढे से मोटे आदमी को घेरे हुए थे जिसने कंबल ओढ़ रखा था। मुझे यह देखकर बहुत नफरत हुई कि वहां मौजूद पश्चिमी लोग उस बूढ़े आदमी का पैर छू रहे थे। पहले दिन तो उन्होंने मेरे ऊपर कोई ध्यान नहीं दिया। लेकिन इसी तरह एक दो तीन चार पांच छह नहीं पूरे सात दिन मेरी उपेक्षा करते रहे तो मैं काफी खिन्न हुआ। न मुझे वहां कुछ महसूस हो रहा था और उस बूढ़े आदमी के लिए मेरे मन में कोई मोहब्बत न थी। मैंने महसूस किया कि मेरी पत्नी किसी उन्मादी समूह में फंस गयी है इसलिए एक हफ्ते बाद ही मैं वापस लौटने की तैयारी करने लगा।

हम नैनीताल के एक होटल में ठहरे हुए थे। आठवें दिन मैंने अपनी पत्नी से कहा कि मुझे कुछ अच्छा नहीं लग रहा है। शाम को झील के किनारे टहलते हुए मुझे महसूस हुआ कि मेरी पत्नी किसी ऐसी जगह मशगूल हो गयी है जिसमें मैं शामिल नहीं हूं। ऐसे में निश्चित रूप से मेरा विवाह टूट जाएगा। मैंने फूल पेड़, पहाड़ झील सब की तरफ देखकर मन बहलाने की कोशिश की लेकिन मेरा डिप्रेशन कम होने का नाम नहीं ले रहा था। इसके बाद मैंने कुछ ऐसा किया जो जवानी में अब तक मैंने कभी नहीं किया था। मैंने प्रार्थना की।

मैंने भगवान से पूछा, मैं यहां क्या कर रहा हूं? यह आदमी कौन है जिसके लिए लोग इतने मतवाले हो गये हैं? तभी मेरे जेहन में आया कि विश्वास के लिए चमत्कार का होना जरूरी है। मैंने भगवान से कहा, ठीक है मुझमें कोई श्रद्धा नहीं है। आप चमत्कार कीजिए। मैं आकाश में इंद्रधनुष की तरफ देखने लगा। कुछ नहीं हुआ। मैंने तय किया कि अगले दिन मैं यहां से चला जाऊंगा।

अगले दिन विदा लेने के मन से हमने कैंची मंदिर जाने के लिए टैक्सी मंगवाई। मैंने मन में तय किया कि मैं महाराजजी को साफ बता दूंगा कि मुझे वे पसंद नहीं आये। हम सुबह सुबह जब कैंची पहुंचे तब तक वहां लोग नहीं आये थे। हम बरामदे में उनके तख्त के सामने बैठ गये। महाराजजी अभी कमरे से बाहर नहीं आये थे। तख्त पर कुछ फल रखा था जिसमें से एक सेब जमीन पर गिर गया था। मैं उसे उठाकर तख्त पर रखने के लिए झुका तभी महाराजजी बाहर आ गये। उन्होंने अपने हाथ को मेरे सिर पर रखा और जमीन की तरफ दबाव से झुका दिया। मेरे शरीर की ऐसी स्थिति बन गयी कि मैं घुटनों के बल झुककर उनके पैरों को छू रहा था। जबर्दस्ती। बिना किसी भाव के। यह सब कितना ऊटपटांग था। फिर उन्होंने मुझसे पूछा, "कल कहां थे? लेक पर थे?" उन्होंने लेक शब्द अंग्रेजी में कहा। जब उनके मुंह से मैंने लेक शब्द सुना तो मेरे पूरे शरीर में झुनझुनी सी दौड़ गयी। मैं बहुत अजीब महसूस कर रहा था। उन्होंने फिर मुझसे पूछा, "लेक पर क्या कर रहे थे?"

मैं स्तब्ध था। फिर उन्होंने खुद ही कहा, "घुड़सवारी कर रहे थे?"

"नहीं।"
"नौका चला रहे थे?"
"नहीं"
"तैराकी कर रहे थे?"
"नहीं"
फिर वो मेरी तरफ झुके और धीरे से बोले "भगवान से बात कर रहे थे?"

जब उन्होंने यह आखिरी वाक्य कहा तो मैं गिर पड़ा और बच्चे की तरह रोने लगा। उन्होंने मेरी दाढ़ी पकड़कर उठाते हुए कहा, "क्या तुमने कुछ मांगा?" यह मेरे लिए मेरी दीक्षा जैसा था।

तब तक और लोग वहां आने लगे थे। वे सब मुझे बड़े दुलार भाव से देख रहे थे। मुझे लगा आज जो मेरे साथ हो रहा है, इन लोगों के साथ पहले हो चुका है। एक तुच्छ सा सवाल "क्या कल तुम झील के किनारे गये थे?" जिसका किसी और के लिए कोई मतलब नहीं हो सकता था, उसने वास्तविकता की मेरी धारणा को छिन्न भिन्न कर दिया था। यह स्पष्ट हो गया था कि महाराजजी हर भ्रम के बीच सत्य को देखते हैं। वे सबकुछ जानते हैं। इसके बाद उन्होंने मुझसे पूछा, " क्या तुम एक किताब लिखोगे?"

यह मेरा स्वागत था। इसके बाद अब उनके पैरों को मैं अपने हाथ से दबाना चाहता था।

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