Tuesday, December 22, 2015

बाबाजी ने बचाई जिन्दगी

अल्मोड़ा में एक दिन दिवाकर पंत बहुत बुरी तरह बीमार हो गये। आधी रात होते होते उनकी हालत बहुत नाजुक हो गयी। पहाड़ में इतनी रात किसी डॉक्टर को बुलाना भी संभव नहीं था। सब सुबह होने का इंतजार कर रहे थे। उनकी हालत लगातार बिगड़ती जा रही थी। उनकी पत्नी रोते रोते बदहवास होकर गिर पड़ीं।

तभी उन्होंने महसूस किया जैसे महाराज जी उनका कंधा पकड़कर हिला रहे हैं और एक दवा की तरफ इशारा करते हुए कह रहे हैं कि "यह दवा दे दो। वह ठीक हो जाएगा। "

उन्हें यह सोचने का भी होश नहीं था कि अचानक बाबाजी कब आ गये? कमरे में उनके अलावा किसी और ने बाबाजी को देखा भी नहीं। वे उठीं और बाबाजी ने जिस दवा की तरफ इशारा किया था वह दवा पिला दी। दवा देते ही दिवाकर पंत के व्यवहार में अजीब सा बदलाव आ गया। वे हिंसक हो गये और अनाप शनाप बकने लगे। ऐसे लग रहा था जैसे उनके दिमाग का संतुलन बिगड़ गया है। सब उनकी पत्नी के व्यवहार को कोस रहे थे कि बिना जाने समझे उसने कौन सी दवा दे दी। खुद उनकी पत्नी को भी पता नहीं था कि उन्होंने कौन सी दवा दे दी है। उन्हें न दवा का नाम पता था और न डोज।

खैर, अगली सुबह डॉ खजानचंद आये। रोगी की जांच करने के बाद उन्होंने वह सब वाकया बड़े धैर्य से सुना जो रात में घटित हुआ था। उन्होंने कोरोमाइन नामक दवा की वह शीशी भी देखी जिसमें से रात में रोगी को उनकी पत्नी ने दवा पिलाई थी। सब सुनने के बाद उन्होंने दिवाकर पंत की पत्नी से पूछा, बेटी तुमने यह दवा क्यों दी?

मारे शर्म और अपराधबोध के वो कोई जवाब न दे सकीं। बस बुरी तरह रोये जा रही थीं। तब डॉक्टर ने उनकी पीठ थपथपाते हुए कहा कि "यह दवा देकर तुमने अपने पति की जान बचा ली। उस वक्त सिर्फ यही एक दवा थी जो रोगी को दी जा सकती थी।" डॉक्टर ने कहा, अब वे ठीक हो जाएंगे। घबराने की कोई बात नहीं है।

#महाराजजीकथामृत

(रवि प्रकाश पांडे (राजीदा),  द डिवाइन रियलिटी, दूसरा संस्करण, (१९९५), पेज- १०७/१०८)

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🌺 कृपा करहु आवई सद्भावा।। 🌺
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Tuesday, December 15, 2015

कंजूस का धन

बात 1966 की है। तब कैंची नदी पर इतना बड़ा पुल नहीं था। एक लकड़ी का छोटा सा पुल था। कई बार दोपहर में वे वहीं जाकर बैठ जाते थे और भोजन करते थे। पंद्रह जून के भंडारे से पहले एक दिन वे उसी पुल पर बैठे हुए थे कि बरेली से एक भक्त आये। ट्रक में। कुछ पत्तल और कसोरे (मिट्टी का बर्तन) साथ लाये थे भंडारे के लिए। उन्होंने वह सब वहां अर्पित करते हुए मुझसे कहा, "दादा बताइये और क्या जरूरत है?"

मेरे नहीं कहने के बाद भी वे बार बार यही जोर देते रहे कि बताइये और क्या चाहिए। बताइये और क्या चाहिए। उनके बहुत जोर देने पर मैंने कह दिया कि दो खांची (बांस का बना बड़ा बर्तन) कसोरे और भेज दीजिएगा।

तब तक बाबाजी चिल्लाये। क्या? क्या करने जा रहे हो तुम उसके साथ मिलकर? है तो सबकुछ। तुम बहुत लालची हो गये हो। कोई कुछ देना चाहे तो तुम तत्काल झोली फैला देते हो।"  मैं चुप रहा।

प्रसाद लेने के बाद जब वह व्यक्ति जाने के लिए तैयार हुआ और महाराजजी के पास उनके चरण छूने पहुंचा तो सौ रूपये का नोट निकालकर रख दिया। महाराजजी ने तत्काल वह सौ रूपये का नोट उसके सामने ही फाड़कर फेंक दिया। वह व्यक्ति बहुत खिन्न मन से वापस लौट गया।

उसके जाने के बाद महाराजजी ने कहा, "आप समझते नहीं हैं दादा। कंजूस का दिया धन या भोजन आपको स्वीकार नहीं करना चाहिए। हजम नहीं होगा। उस आदमी के पास बहुत पैसा है लेकिन दान पुण्य के लिए धेला भी खर्च नहीं करता है। मैं उसको बहुत अच्छे से जानता हूं।"

(सुधीर "दादा" मुखर्जी द्वारा अपने दोस्त को बताया गया एक वाकया।)

#महाराजजीकथामृत

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