Saturday, August 22, 2015

सूखा पेड़ हरा हो गया


कैंची आश्रम में प्रवेश करते ही करीब बीस पच्चीस मीटर आगे बढ़ने पर एक बड़ी सी शिला है जिस बाबाजी अक्सर भक्तों और आगंतुकों के साथ बैठा करते थे. वहीं पर शिला के बगल में उत्तीस का एक बहुत बड़ा वृक्ष था जो अब सूख चुका था. वह पुराना पेड़ झुका भी हुआ था जिससे इस बात का डर था कि किसी आंधी तूफान में अगर यह गिरा तो लोगों को चोट लग सकती है.

एक दिन बाबाजी भक्तों के साथ शिला पर बैठे हुए थे कि किसी भक्त ने इस आशंका को महाराजजी के सामने प्रकट करते हुए सुझाव दिया कि पेड़ को काट देना चाहिए. बाबाजी ने कहा कि इसकी जड़ो में थोड़ा सा गंगाजल डाल दो. यह फिर से हरा हो जाएगा.

श्रीमां एक केन में गंगाजल लेकर आईं और उन्होंने पूर्णानंद को दिया. पूर्णानंद ने वह गंगाजल जड़ों में चारों तरफ डाल दिया. वृक्ष धीरे धीरे पहले जैसा हरा हो गया. और सालों साल अपने पुनर्जीवन की कहानी कहता रहा.

#महाराजजीकथामृत

(रवि प्रकाश पांडे 'राजीदा' द डिवाइन रियलिटी, दूसरा संस्करण, 2005, पेज- 122-123)

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Sunday, August 16, 2015

विधवा के बेटे को जीवनदान

एक बार बाबा जी कुछ भक्तों के साथ हनुमानगढ़, नैनीताल के लिए जा रहे थे. हल्द्वानी से कुछ पहले उन्होंने अपने ड्राइवर रामानन्द को और तेज चलने के लिए कहना शुरू किया. काठगोदाम और जुइलीकोट के बीच एक निर्जन सी जगह पर उन्होंने कार को रोकने के लिए कहा और उतरकर आगे बढ़े.

जंगल में एक वृद्ध विधवा अपने मृत बेटे की लाश पर विलाप कर रही थी. कुछ समय पहले उसे सांप ने काट लिया था और उसका निधन हो चुका था. उन्होंने महिला से कहा "क्यों रो रही हो?" "यह तुम्हारा इकलौता बेटा था?" "तुम्हारे पति भी जिन्दा नहीं है." यह सब सुनकर महिला और तेज विलाप करने लगी. तब बाबा ने कहा "क्यों रो रही हो. तुम्हारा बेटा मरा नहीं है. चुप हो जाओ." बाबा ने अपने हाथों से नौजवान के शरीर को रगड़कर स्पर्श किया और उसके निर्जीव शरीर में प्राण का संचार हो गया. वह जीवित हो उठा और थोड़ी ही देर में वह होश में आ गया.

बाबा तत्काल कार की तरफ लौट आये और वहां से चले गये. उन्होंने महिला को आभार जताने का भी अवसर नहीं दिया.

#महाराजजीकथामृत

(रवि प्रकाश पांडे"राजीदा" द डिवाइन रियलिटी, दूसरा संस्करण 2005, पेज-174-177)

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Wednesday, August 5, 2015

खिड़की में टिकट

महाराज जी एक भक्त के साथ ट्रेन के पहले दर्जे में यात्रा कर रहे थे. भक्त को लगा कि टीटीई के आने तक टिकट महाराजजी को दे देंगे तो सुरक्षित रहेगा.

महाराजजी ने भक्त की तरफ देखा और पूछा "यह किसलिए है?" महाराज जी ने यह कहते हुए दोनों टिकट चलती ट्रेन की खिड़की से बाहर फेंक दिया. 

महाराजजी अपनी चर्चा में मगन हो गये लेकिन इधर भक्त टिकट को लेकर चिंतित था. अंतत: कम्पार्टमेन्ट के दरवाजे पर टीटीई आया और उसने टिकट के लिए पूछा. भक्त महाराज जी से टिकट के लिए कहने में थोड़ा सकुचाया लेकिन फिर कह दिया कि टीटीई टिकट के लिए पूछ रहा है.

महाराजजी ने खिड़की में हाथ डाला और दोनों टिकट टीटीई को दे दिये और हंसते हुए भक्त से बोले, "तुम इसी के लिए इतना परेशान थे?"

(रामदास, मिराकल आफ लव http://maharajji.com/Miracle-of-Love/train-tickets-out-the-window.html)
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Saturday, August 1, 2015

बुलेटप्रूफ कंबल

1943 में महाराज जी फतेहगढ़ पधारे थे. वे जिस घर पहुंचे वहां बुजुर्ग दंपत्ति ही रहते थे. उनका जवान बेटा बर्मा में युद्ध लड़ रहा था. घर पहुंचने के बाद महाराज जी ने रात में वहीं आराम करने के लिए कहा. बुजुर्ग दंपत्ति के पास दो ही चारपाई थी. उन्होंने एक चारपाई और कंबल रात में विश्राम करने के लिए महाराज जी को दिया.

महाराज जी आराम करने लगे. वे रातभर कराहते रहे और बेचैन रहे. वे बुजुर्ग दंपत्ति बैठकर महाराज की देखते रहे करीब चार बजे उनकी कराह बंद हुई और साढ़े चार बजे बेडशीट को लपेटकर बुजुर्ग दंपत्ति को देते हुए कहा "इसे गंगाजी में प्रवाहित कर दो. वहां प्रवाहित करना जहां गंगाजी गहरी हों. और ध्यान रखना कोई देखे नहीं वर्ना पुलिस पकड़ लेगी."

उन्होंने वैसा ही किया जैसा महाराजजी ने कहा था. लेकिन रास्ते में उन्होंने महसूस किया कि इसमें गोलियों जैसा कुछ भरा हुआ है. लौटकर आये तो महाराज जी ने कहा "चिंता मत करो. तुम्हारा बेटा एक महीने में आ जाएगा."

करीब एक सप्ताह बाद जब उनका बेटा लौटकर आया तो उसने बताया कि वह मौत के मुंह से निकलकर आ रहा है. युद्ध के दौरान उसकी कंपनी को दुश्मनों ने घेर लिया था और उसके सारे साथी मारे गये. सारी रात गोलीबारी होती रही और चार बजे जब जापानी फौज को लगा कि सारे लोग मारे जा चुके हैं तो वे चले गये. भारतीय फौज की दूसरी टुकड़ी सुबह साढ़े चार बजे वहां पहुंची और वह जिन्दा बचनेवाला अकेला बचा था. (यह वही रात थी जिस रात महाराज जी वहां पधारे थे.)

(रामदास, मिराकल आफ लव,  दूसरा संस्करण, 1979, पेज-98- 99)

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राम! राम! राम! राम! राम!